Monday, April 19, 2010

Prakriti ka Manushya

हे  मनुष्य तू  धन्य  है
इस  धरती  पर  संलग्न  है ,

अरबों  खरबों  की  संख्या  में ,
लगा  है  बस  अपने  मंकी  चंचलता  के  पूरण  में ,
ध्रुव  पर  बरफ  को  पिघलाया  तुने ,
चन्द्रमा  के  तल  को  हिलाया  तुने ,
सैकरों  नदियों  को  सुखाया  तुने ,
इस  धरती  को  लहू  से  नेह्लाया  तुने ,

खोद  डाली  साड़ी  खानें , लूट  लिए  सब  पदार्थ  जो  भी  थे  तेरे  काम  आने ,
काट  डाले  अनगिनत  जंगल , जो  होते  थे  कभी  मासूम  पशु  पंछियों  के  घराने ,
आकाश  को  जान  न  चाहे  तू , पर  टोहे  कभी  नहीं  पृथ्वी  के  मन  को  तू ,

मंगल  तक  तू  पहुँच  चूका , करके  अमंगल  अपने  वास  का ,
बढ़ता  जरह  है  उस  रस्ते  पर , जो  रास्ता  है  सर्वनाश  का ,

हे  मनुष्य  तू  धन्य  है
इस  धरती  पर  संलग्न  है ,

हथियार  से  लैस तेरी  ये  सेना ,
चीरती  चली  जाए  इस  ब्रम्हांड  का  सीना ,
जान  चूका  है  हर  गुप्त  राज़  प्रकृति  के ,
छीन  चूका  है  न  जाने  कितने  जीवन  इन  जड़ -चेतन  जीवों  के ,

नापी  तूने  पर्वतों  की  उचाईयां , परखी तूने  सागर  की  गहराइयाँ ,
जान  न  पाया  लेकिन  अपने  मन  की  ख़ुशी  को , सुमिरन  करना  चाहे  जो  हमेशा  प्रभु  को ,

हे  मनुष्य  तू  धन्य  है
इस  धरती  पर  संलग्न  है ,

इतनी  भड़की  तेरे  अन्दर  क्रोध  की  आग , बना  डाले  तूने  सर्वनाश  करदेने  वाले  वोह  निर्मम  हथियार ,
खीच  दिन  इस  पृथ्वी  पर  लकीरें  इतनी  साडी , समय  के  साथ  जो  होती  गयीं  और  भी  भारी ,
दूरियों  का  सिलसिला  कभी  न  रुका , निर्दोषों  का  रक्त  कभी  न  सूखा
नफरत  की  आग  बढती  गयी , सबके  के  मस्तिष्क  को  चलती  गयी ,
तुझे  मतलब  सिर्फ  अपने  सुख  से , नहीं  वास्ता  तेरा  किसी  और  के  दुःख  से ,

इठलाती  परिहास  करती  उस  पर्वत  की  उचैयाँ , जो  कभी  थी  सागर  की  गहराइयाँ ,
कभी  न  भूलना  की  सागर  तल  से  ही , उठ  कर  पर्वत  इतना  ऊंचा  बन  पाया  है ,
इक  दिन  फिरसे  ये  सागर , उस  पर्वत  को  खा  जायेगा , अगर  यूँ  ही  हरदम , पर्वत  उसको  झुथ्लायेगा ,

चाहे  कर  ले  कितनी  भी  प्रगति , मिट  जानी  है  एक  दिन  तेरी  भी  हस्ती ,
तेरे  जैसे  लाखों  आये , पर  जिंदा  है  अभी  भी  प्रकृति , खूब  जानती  है  ये , है  ये  अपनी  स्वयं  रचायेती....

No comments: