हे मनुष्य तू धन्य है
इस धरती पर संलग्न है ,
अरबों खरबों की संख्या में ,
लगा है बस अपने मंकी चंचलता के पूरण में ,
ध्रुव पर बरफ को पिघलाया तुने ,
चन्द्रमा के तल को हिलाया तुने ,
सैकरों नदियों को सुखाया तुने ,
इस धरती को लहू से नेह्लाया तुने ,
खोद डाली साड़ी खानें , लूट लिए सब पदार्थ जो भी थे तेरे काम आने ,
काट डाले अनगिनत जंगल , जो होते थे कभी मासूम पशु पंछियों के घराने ,
आकाश को जान न चाहे तू , पर टोहे कभी नहीं पृथ्वी के मन को तू ,
मंगल तक तू पहुँच चूका , करके अमंगल अपने वास का ,
बढ़ता जरह है उस रस्ते पर , जो रास्ता है सर्वनाश का ,
हे मनुष्य तू धन्य है
इस धरती पर संलग्न है ,
हथियार से लैस तेरी ये सेना ,
चीरती चली जाए इस ब्रम्हांड का सीना ,
जान चूका है हर गुप्त राज़ प्रकृति के ,
छीन चूका है न जाने कितने जीवन इन जड़ -चेतन जीवों के ,
नापी तूने पर्वतों की उचाईयां , परखी तूने सागर की गहराइयाँ ,
जान न पाया लेकिन अपने मन की ख़ुशी को , सुमिरन करना चाहे जो हमेशा प्रभु को ,
हे मनुष्य तू धन्य है
इस धरती पर संलग्न है ,
इतनी भड़की तेरे अन्दर क्रोध की आग , बना डाले तूने सर्वनाश करदेने वाले वोह निर्मम हथियार ,
खीच दिन इस पृथ्वी पर लकीरें इतनी साडी , समय के साथ जो होती गयीं और भी भारी ,
दूरियों का सिलसिला कभी न रुका , निर्दोषों का रक्त कभी न सूखा
नफरत की आग बढती गयी , सबके के मस्तिष्क को चलती गयी ,
तुझे मतलब सिर्फ अपने सुख से , नहीं वास्ता तेरा किसी और के दुःख से ,
इठलाती परिहास करती उस पर्वत की उचैयाँ , जो कभी थी सागर की गहराइयाँ ,
कभी न भूलना की सागर तल से ही , उठ कर पर्वत इतना ऊंचा बन पाया है ,
इक दिन फिरसे ये सागर , उस पर्वत को खा जायेगा , अगर यूँ ही हरदम , पर्वत उसको झुथ्लायेगा ,
चाहे कर ले कितनी भी प्रगति , मिट जानी है एक दिन तेरी भी हस्ती ,
तेरे जैसे लाखों आये , पर जिंदा है अभी भी प्रकृति , खूब जानती है ये , है ये अपनी स्वयं रचायेती....
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