कविता लिखने की इच्छा इस कुंठित मन में जागी है
लगता है मन वैरागी है
क्या लिखूं कहूँ किसे सूनुं सुनाओं
सब चढ़ भँगुर रस के प्यासे हैं
कब तक चला कहाँ रुका कुछ समझ में मेरी ना आता है
कविता लिखने की इच्छा फिर भी मन में जागी है
लगता है मन वैरागी है ,
वो चली गयी कहते हुए तुम , नीरस और बेरंगी हो
नहीं करती प्यार मैं अब तुमको , तुम मेरे मन के मीत नहीं ,
वो चली गयी कहते हुए तुम , मुझको समझ ना पाए कभी
नहीं करती प्यार मैं अब तुमको , तुम एक आँख अब भाते नहीं ,
वो चली गयी कहते हुए तुम , से जो वादे नाते मेरे थे ,
मैं सब कुछ अब झुट्लाती हूँ , वोह प्यार नहीं कुछ और ही था
तुम मेरे मन के मीत नहीं ,
वो चली गयी कहते हुए जो भी दिन बीते थे साथ में अपने वोह सब अनजाने सपने हैं
वो मेरी उम्र की भूल हे थी , तुम मेरे मन के मीत नहीं ,
वो चली गयी कहते हुए , मैंने जब तुमको प्यार किया, अपना सब कुछ वार दिया , तुमने बदले में टकरार किया, मेरी आँखों में अंश्रु बहार दिया ,
वो चली गयी कहते हुए जब मैं तुमसे मिलती थी , कंधे पर सर रखती थी , तुम शरमाते हिचकिचाते थे , नाराज़ होकर पलट जाते थे , तुम मेरे मन के मीत नहीं ,
वो चली गयी कहते हुए , जब जब मैं तदपि रोई , घबरायी चिल्लाई , परेशान चत्पतायी , तुम कभी मेरे पास ना थे , तुम हर दम मुझसे दूर हे थे , तुम मेरे मन के मीत नहीं
मैं ये सब कुछ सुनता रहा , सिसक सिसक कर रोता रहा ,
फिर भी मन ये मानता नहीं की मैं उसके मन का मीत नहीं ,
दिल इस बात को जानता नहीं की मैं उसके मन का मीत नहीं ,
जब पहली बार मिले थे हम , ये बातें जग जाहिर थीं ,
दोनों के दिलों में उठी वोह अनजानी सी कुछ धुनें थीं ,
इस चंचल मन की लहरों ने पाया एक किनारा था , अँधेरी ह्रदय की गलियों में हूआ एक उजियारा था ,
जब भी दोनों साथ में होते , हर दम हँसते खिल खिलते थे ,
लोगों के मन , दोनों को देखर कर फूलों से खिल जाते थे ,
प्यार के रंग में रंगे थे दोनों , अब कहती बेरंगी हूँ ,
भूल गयी वोह फूलों सी गलियां , जिनमें बहता समय थम सा जाता था ,
भूल गयी वोह बाँहों के झूले , जिनमें दूब कर मन बह सा गया था .................... to be continued.....
Monday, April 19, 2010
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